गज़ल
गज़ल
ज़माने में कैसी हवा ये चली है।
अँधेरों की अब हो रही बन्दगी है।
हदों से भी बाहर है आलम नशे का ।
कि नस नस में उनके जवानी चढ़ी है।
ज़माने तेरी अब मुझे क्या ज़रूरत।
मेरी हमसफ़र मेरी, आवारगी है।
अभी तक भी हम, मुन्तज़िर यार उनके।
कि मरते हुए भी ये ज़िन्दा दिली है।
ये रुख़सार क्यूँ तेरे दहके हुए हैं।
तपिश इश्क़ की क्या तुझे छू गई है।
ये मदहोशियाँ ,ये बहकती फ़ज़ाएँ।
तिरी सादगी भी ग़ज़ब ढा रही है।

