गया वो जमाना दूर !
गया वो जमाना दूर !
गया वो जमाना दूर ! जहाँ ये बात हमेशा कानों में गूँजती थी।
आदमी ही आदमी थे वहाँ पे औरतें कहाँ थीं ???
गया वो दौर दूर जब स्त्रियाँ चूल्हे -चौके और
चहारदीवारी तक ही सिमट के रह जाती थीं।
घूँघट की घूँट में दबकर वे सपने साकार कर न पाती थीं।
पंख काट दिये जाते उनके, वे फिर उड़ान कहाँ भर पाती थी!
आदमी ही आदमी थे उस समय औरतें कहाँ थी !!!
लेकिन मन: स्थिति बदली, परिस्थिति बदली।
मौका मिला जब -जब उन्हें वो मिसाल पेश कर गईं ।
अपने साहस, संकल्प और परिश्रम से माशाल्लाह! कमाल कर गईं।
ये तो बस प्रचंड शुरुआत है। तूने कहाँ अभी इनकी असली उड़ान देखी !
लिखेंगी वे अपनी लगन और कर्तव्यनिष्ठा से अपनी तकदीर ।
रख देंगी अपनी परिश्रम से नाकामियों के सीना चीर।
तोड़ रही वे गुलामी की जंजीर को।
बना रही वे खुद से खुद का ही एक अलग तस्वीर।
मंजिल पाने की भूख है उनको, अब वे किसके रोके रूकनेवाली!
न समाज की आलोचनाओं परवाह है उन्हें।
अब वो किसके आगे झुकने वाली! गया वो जमाना दूर!
पुरुषत्व हावी रहता था नारीत्व पर।
संकट आ जाती थी अपना अधिकार माँगने में ही उनके अस्तित्व पर।
आदमी ही आदमी थे वहाँ पे औरतें कहाँ थी ???
औरतें अब किसी चीज का मोहताज नहीं!
स्वाभिमान से जीयेंगी वे अपना जीवन। है !
ललकार है खुलेआम कोई उन्हें रोक के तो दिखाये ?
रणचंडी का अवतार बनकर वे पापियों का नाश करना भी जानतीं है।
अपना कौन है ! कौन पराया ! अच्छी तरह पहचानतीं हैं।
तुम नीचों के जैसे अबला नहीं वो ! जो गीदड़ों की तरह झुंड में आते हो !
शेरनी है वो अकेले ही शौर्य दिखाती हैं।
वो तो अविचल ,अविरल, आशाओं की अभिलाषी है ।
कभी माँ ,कभी बहन ,कभी सच्चा साथी बन घट-घट में वासी हैं।
हर क्षेत्र में वो अपनी कर्म योगिनि जलवा अपना दिखा रही।
परिश्रम को परवान कर वे पद प्रतिष्ठा भी अपने बूते पा रही।
बेमेल रेस में भी वो अब पुरुषों को पछाड़ रही !
दंभी लोगों को दूर से ही मुकाबले के लिए ललकार रही।
चुनौती दे रहीं वे डटकर, पहली ऐसी ललकार कहाँ थी !
गया वो जमाना दूर ! जब आदमी ही आदमी थे वहाँ पे औरतें कहाँ थी ?? ?
अब औरतें ही औरतें हैं यहाँ पे वे दम्भी,
औरतों को अबला समझने वाले आदमी कहाँ गए !
