गूंज- ख्यालों के गुच्छे
गूंज- ख्यालों के गुच्छे
ख्यालों के गुच्छों में,
गांठे पढ़ गयी हैं,
उलझे पड़े हैं बुरी तरह से,
दीवाली थी न घर के साथ,
इनकी भी सफाई का बीड़ा
उठाया था मैंने,
अदावतें तग़ाफ़ुल, रंजिशें, जलन,
चुभन के अर्सों से लटक रहे
जालों को उतार फेकूं सोचा,
सोचा ख़ुशी, हँसी ,प्यार, उन्स की
तख्ती पे जमी धूल को साफ़ कर लूँ,
सालों से छू के तक नहीं देखा इन्हे,
पर क्या खबर थी की छुअन
भर से ही,
इस क़दर जूझ पड़ेंगे सब ख्याल
आपस में,
उफ बहत्तर घंटो से सुलझा रहा हूँ,
की उलझन टूटे तो किसी ख्याल का
दामन पकड़े,
कागज़ पर कोई नयी नज़्म उढेलूं,
आखिर कार दीवाली है हर तरफ
इतनी रौशनी है,
आसमान की थाली को इतने
दीयों से सजा दिया है लोगो ने,
की चाँद का वजूद भी डगमगा
गया है कुछ,
जला भुना एक कोना पकड़े
बैठा हुआ है,
बादलों के नरम कम्बल में मुँह
छुपाये,
जानता है आज उसकी रौशनी की
ज़रूरत नहीं किसी को,
इतने अलावों का उजाला हर तरफ
बरस रहा है तो,
तो मेरी डायरी के पन्नों ने क्या
गुनाह किया है,
इन्हे भी कुछ नज़्मों शब्दों से
चमकने का पूरा हक़ है,
पर,
कम्बख्त उलझन ने तो न खुलने की
कसम खा रखी थी,
इस सफाई के चक्कर में इस बार
मेरी और मेरी डायरी की दीवाली
कुछ बेजान सी रह गयी
