गुमनाम सफर
गुमनाम सफर
वो लोग और हैं जो मौत से खौफजदा हैं, कुछ बशर
गुमनामियों के साये में, रोशन मशालों की पैरवी को
बढ़े चले जा रहे, अंधे अनवरत सफर को।
आजीवन जीता रहा सनाम होने को जो
जब कब्र में सोया, उसे गुमनामियों का फर्क ना पड़ा।
आज सोया है वो इस कदर बेखबर,
ठहाके लगा के गूजीं जो हंसी, उसे निशाना बनाकर
गूंज उस निशाने की, खुद ही ख़ामोश हो जाती है उसे छू-छूकर।
क़ातिल ए शिफर था, वो, अपनी ही चंद उमडती जरुरतों का
ज़माना ए शऊर, की ऊंची नसैनी जो पार न कर सका वो
ऐ वक्त, फर्ख ए परिंदे न उड़ा,, माकूल है वो अब भी स्व आत्म को
कि उसकी आत्म जागीर किसी सनामी-अनामी-
गुमनामी की मोहताज नहीं।