गोधूलि बेला
गोधूलि बेला
आई है आई है गोधूलि बेला फिर से छायी है
आसमां ने बाहों की झोली वसुंधरा के सीने पे
क्षितिज आलिंगन सी फैलायी है
इन आभासी-सुमुखी पलों में आसमां के अश्क
धरा की असीम-वेदना रज-कणों सा धूमिल करेंगे
कसक इन पलों में दोनों एक-दूजे की पूरी हर लेंगे।
आलम होगा कुछ-कुछ ऐसा, पूरे खिले कमल जैसा
अथाह सांसारिक-जीवों का दर्द जब,धरा की गोद में समाता है,
अपनी प्रेयसी वसुंधा के इसी भार का वरण
हरने ही तो आसमां क्षितिज-आकार में नीचे झुक आता है
प्रेम का उचित प्रतीकांक्ष, नर-नारायण सदृश अद्भुत छटा-ए-नजारा सारे जहां को प्रसाद-रुप वितरित कर जाता है
पावन-पल ये तभी तो जगत-करतार गोधूलि-बेला में सजाता है,
कितना कुछ प्रकृति-चित्रण में खुदा मानव को संदेश भिजवाता है
प्रेम की इस पावन-धुनि को क्यूं मानव नहीं, कुदरत सा समझ पाता है
और हासिल-हासिल-हासिल ही जीवन लक्ष्य रुप हो जाता है।।