ग़ुलाम
ग़ुलाम
कहाँ कभी कोई कवि वस्तु को व्यक्ति बना सकता था,
धरती को माँ, चाँद को मामा और हवा को संगिनी बना सकता था।
आज तो मशीन ने इंसान को वस्तु बना रखा है,
हमें तो हमारे ही हुनर का ग़ुलाम बना रखा है॥
कहाँ कभी कोई कवि वस्तु को व्यक्ति बना सकता था,
धरती को माँ, चाँद को मामा और हवा को संगिनी बना सकता था।
आज तो मशीन ने इंसान को वस्तु बना रखा है,
हमें तो हमारे ही हुनर का ग़ुलाम बना रखा है॥