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Pragya Mishra

Children

4.9  

Pragya Mishra

Children

ग्रीटिंग कार्डस्

ग्रीटिंग कार्डस्

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बचपन में ग्रीटिंग कार्ड की चौहद्दी पर

अक्सर समानान्तर रेखाएँ बनाया करती थी,

फिर भर दिया करती थी उन्हें

ज़िग-जैग लाइनों से।


पहरेदारी रेखाओं को

तिरछे ढलान जोड़ते थे,

जैसे स्लाइडिंग झूला।


जितने कोने, त्रिकोण की टेक पर आये

वे सब, आपस में जोड़े कहलाये।

पहाड़, अकेला खड़ा रहा

टँगी लाइन का बिंदु बनकर

तुम भिन्न हो !

तुम भिन्न हो !

तुम्हें जोड़ और भी रेखाएँ निर्धारित हुईं

भविष्य के डायग्राम की।


पर न मिले शिखरों पर मित्र न साथी

वो मिला हर किसी से उदाहरण बनकर।


मन बहलाने के लिए

कार्डस् की सतह पर

दिल काटा करते थे,

टू और फ्रॉम लिखा करते थे,

न भेजने वाले का नाम होता

न पाने वाले हुआ करते थे।


वो नमूना था उस दिन के लिए

जब मिलेगा हकदार दूसरा टुकड़ा लिए।

नहीं होते असलियत में हम तुम ऐसे

गल चुके थे जितने कागज़ कुछ ऐसे।


मैंने खिड़की भी बनायी

जिसमें दो पल्ले थे।

बैठ हल्के से खोलता था कोई

क्या बनाया दिखाओ कर हँसता था,

फाड़ देता था कोई।


भूरी स्केच से दीवार डाल दी

याद किया कौतूहल निभाने वाली

किसी दोस्त को

जिसकी आँखों में वही चमक थी

स्क्वायर विंडो को खोलते वक्त

जैसी मुझमें थी कैंची से उसको देखते वक्त।


बस उतना ही काम आया ज़िन्दगी भर

मार्किट में बन्द हुई गैलेरी ग्रीटिंग कार्ड की

अब तो न वो बक्से हैं

न वो स्केच और न अवशेष बाकी।


लोग जिन्हें होना चाहिए था,

वो भी चल दिये ताकी सफर मेरा हल्का होगा

बहुत दूर रास्ता कल का होगा।

कल के लिए ही वो तोह्फे बनाये थे

न कल आया न हम वापस आये थे।


मैंने जो भी जितनी भी समांतर रेखाएँ बनायीं

उन पर पटरियाँ बिछी रेलें चलाईं,

कहाँ-कहाँ न जाना हुआ।


मैंने जितने ज़िग जैग के लाइन बनाये

उनपर पत्थरों का बिछौना हुआ।

जितने दिल काटे उनको

खोल-खोल पता लगाया जाए

क्या कुछ और कागज़ ज़ाया किया जाए

चलो अब नाँव बनाई जाए।।


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