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गुलाब का काँटा चुभता है

गुलाब का काँटा चुभता है

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तुम मेरा सुकून नहीं

मेरी तड़प हो,

छटपटाहट हो,

जिसके आने से ही

दिल को सुकून आता है।


कितना अजीब दस्तूर

हो गया आज कल

मेरे वजूद में

अपनी धड़क के पास

और पास जाते जाने से

दिल का धड़कना तेज़ हो जाता है।


सुनते थे ऐसी

मोहोब्बत के बारे में

जिसमें बेमानी

हो जाती है दुनियादारी,

हो गयी मुझे

एक यार से ऐसी यारी।


वो क्या हो गया मेरा

इसका पता लगते लगाते

मेरा मन भर आता है

तुम्हे सोचते सोचते

वक़्त निकल जाता है।


तुम्हे याद करके

मैं जितना हँसती नहीं

उतने तो आँसू आ जाते हैं

सारी रात कई दफा

करवट करवट जगाते हैं।


आँखों से टपक गई तुम्हें

पास न पाने की धक

मझे और बड़ा कर जाती है।


पूरा कर जाती है

देती है इरादा थोड़ा और

कुछ और पैदल चलूँ।


पूरी किताब लिख डालूँ

किसी मोड़ पे तो मिलोगे

मुझसे ऐसे जैसे

मैं मिलती हूँ

अपने सपनों से।


खुली आंखें

हाथ पाने को बढ़े हुए,

मेरी तरफ आते हाथ

मेरे लिए बने हाथ

उँगलियाँ,

खाँचे सी बनी फिट हो गईं

तुम्हारी मज़बूत

पकड़ में ।


"अब भी सोचती हो

दूर जाने का ?"

"बहुत बहाना बनाना पड़ता है

पास आने का।"


“फिर ढूंढती क्यों हो ?”

“तुम्हें कैसे पता ?”

“मैं बिन बताये आता हूँ

तब भी वहीं खड़ी मिलती हो।”


“यही तो बात है।”

“शिकायत ?”

“नहीं, शिद्दत।”

“और मैं क्यों आता हूँ ?”

“तुम जानो।”

“पगली ! मिलने।”


“उहुँ ! कोई काम होगा।”

“नहीं ।”

“सच ?”

“सच।”

“यकीन करने का मन करता है।”


“इतने रुंधे गले से ?”

“हाँ ! गुलाब का काँटा चुभता है।”


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