ग़ज़ल
ग़ज़ल
रह तो सही, नज़रों में मेरी,
चाहे दुश्मन की ही तरह तू।
बस तो सही, कहीं न कहीं,
चाहे ज़ख्म की ही तरह तू।
रच तो सही, कोई षड़यंत्र,
चाहे अपने, या गैरों की तरह तू।
कह तो सही, कुछ भी मुझसे,
चाहे तीरों की तरह तू।
कर तो सही, कुछ भी मेरे लिये,
चाहे आस्तीन के सांप की तरह तू।
मार तो सही , ऐ यार मेरे,
चाहे आंखों के वार या तलवार की तरह तू।
