Ravi Jha

Abstract Tragedy

4.0  

Ravi Jha

Abstract Tragedy

गजल

गजल

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कल तलक जो मेरा यार था अब रक़ीब है

मुझे लगता है शायद यही मेरा नसीब है।

खैरात बाँटने वालो ने उसे दिया नहीं कुछ 

लौटा दिया यह कहकर कि ये तो ग़रीब है।

ऊँचे मकां वालों ने देखे कल मिट्टी के घरौंदे

बड़े आश्चर्य से कहा! ये चीज़ क्या अजीब है?

हो रही हैं बातें रोज़गार, विकास, ग़रीबों की

जरा पता लगाओ! लगता है चुनाव करीब है।


डूब जाता है हर शाम 'रवि' उसकी आगोश में

अरे! एक सागर ही तो उसका सच्चा हबीब है।



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