गज़ल
गज़ल
बड़े पैमाने पे फेल रहा है मझधार बेरोजगारी का।
अब हर युवा हो रहा है शिकार बेरोजगारी का।।
आबादी और भ्रष्टाचार ने ही तो जन्म दिया है उसे,
गरीब बेचारा अब क्या करें यार बेरोजगारी का।।
पेड़ - पौधे और फूलों ने खिलना ही छोड़ दिया है,
जब से खिल रहा है गुलज़ार बेरोजगारी का।।
कभी घर का चिराग बुझा तो कभी मेहनत मिट गई,
युवा पीढ़ी मिटे उससे पहले बुझा दो अंगार बेरोजगारी का
मेहनत कि कीमत शून्य ही आंकी जाती है,
नहीं मिलता अच्छा दाम जला दो बाजार बेरोजगारी का।