ग़ज़ल
ग़ज़ल
चाँद नज़रें बचा यूं घटा से चला।
जैसे सूरज सहर की छटा से चला।।
आरजूएं मेरी हो गयीं मसऊद।
मय बशर छोड़ के मयक़दा से चला।।
जो बचा ना सका अपना मुस्तक़बिल।
ज़िन्दगी में वही रहमों दया से चला।।
जब लिहाजों के पैरहन हुए तार तार।
इक भला शख़्स उठ उस सभा से चला।।
अश्क कहते रहे हैं दास्तां दर्द की।
सिलसिला ज़ीस्त का ये सदा से चला।।
जब भरोसे रहे टूटते बार बार।
शख़्स दामन छुड़ा बेवफ़ा से चला।।
मेहनत से उसको मिला जब मुकाम।
वो मिला के नज़र इक अदा से चला।।
जैसे हो अज़नबी राह भूला हुआ।
मीरा 'पूछे बिना वह सदा से चला।।
मुस्तक़बिल=भविष्य , मसऊद=अनुग्रहीत