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Vijay Paliwal

Classics

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Vijay Paliwal

Classics

घूमना अच्छा लगता है मुझे

घूमना अच्छा लगता है मुझे

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घूमना अच्छा लगता है मुझे,

बचपन से ही;

यहाँ-वहाँ,

इस नगर-उस नगर।

पर,

बचपन में तो जा नहीं पाता था,

हर कहीं अपनी मर्जी से।


लेकिन,

अब निकल जाता हूँ हर कहीं,

खुद अकेला ही,

कहीं भी,

किसी भी राह पर,

किसी भी डगर पर।

देखे हैं नगर कई,

जंगल और पहाड़ भी,

कई नदियां और झरने भी।


पर,

मिटी नहीं तलब घूमने की,

कहीं कुछ छूट गया हो जैसे,

कोई एक जगह है ऐसी,

जहाँ घूमने की इच्छा बचपन से है।

हाँ, याद है मुझे,

एक जगह के बारे में सुना था मैंने,

दादी की कहानियों में,

या शायद स्कूल की किताबों में।


ऐसी जगह है एक,

जहाँ रहते है सब लोग,

मिल-जुल कर,

बिना किसी भेदभाव

या ईर्ष्या-जलन के।

न उनमें कोई हिन्दू है,

न है मुसलमान,

न कोई सिख है उनमें,

न है कोई इसाई।

मज़हब उनका एक है,

मानवता जिसे कहते हैं।


एक-दूजे की उन्नति देख कर,

होते है खुश वे,

और,

जब देखते हैं पतन किसी का,

हो जाते है दुखी,

वे खुद भी।

ऐसी ही है एक जगह दुनिया में कहीं,

खोज रहा हूँ बचपन से उसे,

मिली नहीं अब तक,

पर खोज जारी है,

मिलेगी जरुर,

आज नहीं तो कल सही।


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