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घर-आँगन

घर-आँगन

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कभी पंछियों की चहचहाहट से

चारों दिशाएँ झूमती थी ,

सुबह की मीठी धूप

हर आँगन को चूमती थी ...


आँगन में सजे, छोटे-छोटे पौधे भी

खिलखिलाकर हँसते थे,

बड़े वृक्षों की छाया में

निश्चिंत होकर बसते थे ...


अब वो आँगन ही कहाँ ?

जहाँ पंछी दाना चुगे,

कोई मसीहा नहीं उनका

और लौटते हैं फिर से भूखे ...


पंछियों की भूख

किसे समझ में आएगी ?

अब स्वरों की मीठी लय में

कैसे मैना गाएंगी ?


पेड़ों की ठंडी छाया भी

वे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते थक जाते हैं,

ऊँची-ऊँची इमारतों में ही

अब अपने घोंसलें बनाते हैं ...


वहाँ भी हम उन्हें

कहाँ चैन से जीने देते हैं,

घोसलों को उखाड़कर

उनके सपनों को तोड़ देते हैं ...


तिनका-तिनका जमा करके

जो अपना आशियाना बनाते हैं,

कितनी निर्दयता से हम

उनके स्वर्ग को उजाड़ते हैं ...


अपनी खुशी, अपना आनंद

अपना आँगन भी हमने खो दिया,

सिमटकर रहने लगे

अब चार दीवारों में,


कितनी चतुराई से उन्हें

आँगन में आने से रोक लिया ...


चार दीवारों में ही अब हम

सुकून से रह पाते हैं,

और पंछियों के घर उजाड़कर

उन्हें आकाश की राह दिखाते हैं ...


बेघर इन्सानों को ही

कीमत पता होगी घर की,

बड़ी आशा से आते हैं,

हमारे आँगन में पंछी,


उन बेजुबाओं को फिर

जरूरत ही नहीं थी हमारे दर की ...


ना बोल पाते हैं,

ना दुख जताना जानते हैं,

लौटा दो उस विधाता ने दिए उपहार उन्हें

वो भी तो जीना चाहते हैं ...


आकाश और पेड़ों से जुड़ा

पंछियों का यह जीवन है,

मत काटो पेड़ों को

वही तो उनका घर-आँगन है !


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