ग़ज़ल
ग़ज़ल
हक़ बात कहने में कैसा दर है,
ये तेरी सोहबत का असर है।
न महफूज़ तू है, न महफूज़ वो,
किस तहज़ीब का ये असर है।
बहुत तंगख़याली है तेरे यहाँ,
इस शहर में मेरा भी बसर है।
बोल रहे उल्लू हर शाख से,
कोयल का कहाँ अब बसर है।
गुजर गयी ये रात ग़म की,
अब वक़्त नमाज़ -ए -फ़ज़र है।
बदरंग हैं चेहरे सबके यहाँ,
आइनों का मेरा तो मरकज़ है।