ग़ज़ल
ग़ज़ल
सरहदों पर कितने पहरे हो गए,
ज़ख्म फिर से कितने गहरे हो गए।
इन्तख़ाबी आलम है अब यहाँ पर,
इस सियासत के ये सब मोहरे हो गए।
आवाम की अब कौन सुनता है यहाँ ,
हुकुमराम तो सब कितने बहरे हो गए।
राख सी हो गयी हैं ख्वाहिशें सब ,
अरमान दिल के कितने ठहरे हो गए।