STORYMIRROR

Prafulla Kumar Tripathi

Abstract

3  

Prafulla Kumar Tripathi

Abstract

ग़दर के निशाँ !

ग़दर के निशाँ !

1 min
174

अभी भी हैं करते

वे किस्सा बयाँ

अभी भी हैं ज़िंदा

ग़दर के निशाँ


लगे ऐसे जैसे हो

कल की ही बातें

अवध के मुकम्मल

सियासत की बातें


नजाकतअमन-चैन

नफासत की बात

कहीं तो था दुश्मन

लगाये था घात


नहीं दिखता फिर भी

कहर दिन और रात

निपट लेंगे इससे

ना चिंता की बात।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract