गौरेया
गौरेया
गौरैया उठ रोज़ सवेरे
मेरे आँगन आती
मधुर कण्ठ से ची ची चूं चूं
कर के मुझे जगाती॥
पूजा की थाली में अक्षत
रोली जब मैं रखती
दूर बैठ कर चिड़िया रानी
दानों को बस तकती
राम नाम की अलख जगाती
प्रेम से चुग्गा पाती॥
गोल-गोल आटे की लोई
जब मैं थाल सजाती
बैठ तार पर हिलती डुलती
झटपट दौड़ी आती
हीरे जैसी आँखों वाली
मन मेरा दुलराती॥
बचपन की थी सखी सहेली
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बहना थी मुँह बोली
जब से गाँव शहर को आया
बची न सुंदर बोली
साँझ सबेरे जब घर आते
उसकी याद सताती॥
बचे नहीँ अब कुआँ बावडी
बची न अमुआ डाली
कँकरीट का मचा बवंडर
उन्नति की बाहें खाली
पलक झपकते बदला मंज़र
मन ही मन गोहराती॥
जैसा कर्म किया मानव ने
कोई नहीं कर सकता
काट-काट कर वृक्षों को,
बना लिया सागर पर रस्ता
क्षुब्ध हुई वसुधा अन्तस में
खूब बिलख कर रोती॥