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Vigyan Prakash

Drama

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Vigyan Prakash

Drama

गाँव कि गलियाँ

गाँव कि गलियाँ

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पुकारती हैं,

गाँव की गलियाँ,

उन नन्हें पैरों को,

जो कभी धुल भरे सड़कों को,

रौंद दिया करते थे।


बगीचे जिनमे पेड़ों के पत्ते,

झड़ चुके हैं,

गिर जाने को व्याकुल वृक्ष,

जो लाचारी के मारे,


अपनी नैतिकता भुल चुके हैं,

फल छाया दोनो से नदारद,

सुखे तालाब,

मानो तरसते हो प्यास से।


जहाँ कभी गड्ढों में नाव चला करते थे,

आज वहाँ तालाब में भी पानी है,

धरती की छाती फट चुकी है,

निर्ममता की पराकाष्ठा।


अब चहचहाहट नहीं होती वहाँ,

बस सन्नाटा है,

शमशान सा,

अविरल अनंत सन्नाटा,


जो कान के पर्दे

फाड़ देने को आतुर है।

दग्ध मन,

जो चेतना के प्रहार झेल नहीं पाता।


अब लौट नहीं सकता,

उस संसार में,

शहरी जंगलों से,

उन बगीचों में लौटना असम्भव है।


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