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Akshay Gupta

Drama

3.0  

Akshay Gupta

Drama

एकांत

एकांत

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उसकी चुप्पी उसके मन की,

व्यथा नहीं अब गाती थी।

पर धुंधली आँखों की पीड़ा,

अंतर्मन तक जाती थी।


उसकी मूरत ऐसे थी,

जंजीर बंधी एक अबला हो।

फिर भी बढ़ती एक शीला सी,

कहती एक कहानी हो।


क्या वो प्रेम विरागी थी ?

या दुनिया देश निकासी थी ?

क्या वो अंतिम क्षण में थी ?

या फिर नव पथ की साहिल थी ?


जाना था उसको किस दुनिया ?

किस अपने को पाना था ?

क्यों था उसमे रूखापन ?

क्यों एकान्त निराला था ?


मैं पूछ लिया ए सुन ले माँ !

क्या दर्द तेरा सह सकता हूँ ?

मैं पाया लाठी का धक्का,

उस 70 बरस की अम्मा का।


मैं त्यागी हूँ उस बेटे से,

जिसको था मैंने गोद लिया।

और रोते रोते उसने मुझको,

ताजीवन सारांश कहा...


कमी नहीं भारत में मेरी,

हर घर कहता एक कहानी हो।

विरह वेदना के कवियों,

क्यों इस जंगल में आते हो ?


क्या दर्द मिटाने आते हो ?

या दर्द छुपाने आते हो ?

क्यों रोज मुझे तड़पाते हो ?

मेरा एकांत बढ़ाते हो ..


अब सोच रहा था मैं विपरीत,

उस बुढ़िया के इस विग्रह से।

एकांत मिला था अपनों से,

और विरह मिला उसे कवियों से।


पर एकान्त मिला क्या उसको ही,

जो इस जंगल में रहती है।

या एकांत मिला उस हर माँ को,

जो बंद कमरे में रहती है।।


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