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Sunita Nandwani

Abstract

4.7  

Sunita Nandwani

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एक तुम

एक तुम

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‘कभी नयन मूँद कर खोया तुम्हें

कभी नयन खोल कर पाया !

कभी आसमान की उच्चाईयों में ढूंढा,

तो कभी समुन्द्र की गहराईयों में छिपा पाया !


ग्रीष्म ताप में अनुभव किया कभी

तो शीतल चांदनी में पहचाना।

पत्तों की ओस में तुम्हें खिला पाया

तो सर्दी की हल्की धूप में कभी मिला पाया।


तारों को निहारा, तो तुम्हें मुस्कुराता पाया

फूलों को संवारा, तो तुम्हें रंगों से भरा पाया !

धरती के हर कण में सजे तुम

विरानों के साथी बने तुम।


गरीब के पसीने से झांके तुम

अमीर के अहंकार से बोले तुम

मन के अंधेरों में रोशनी बने तुम

दर्द में राहत और सुकून बने तुम !


श्वेत बादल का अभिमान बने तुम

तो श्याम बादल की धरोवर भी बने तुम !

कोपल बन धरती से फूटे

तो फल बन पेड़ से छूटे !


दामिनी बन सब को थरथराया

तो उम्मीद बन सब को हर्षाया।


ढूंढ़ा बहुत, उस जगह जहाँ तुम ना होते 

पर मिलती तब, जब तुम सचमुच में ना होते।


देखा तुम्हे, बिन देखे, माँ के गर्भ में

नवजात से वृद्ध होते, जीवन के अंश में।


हर जगह, हर समय, हर रूप

हर स्वरूप में तुम्ही हो

एक तुम्ही तो हो।

हम ही समय और सीमाओं के 

बन्धनों को तोड़ नहीं पाते


तुम तो बुलाते हो, बस हम ही

तुम तक पहुँच नहीं पाते।


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