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Sunita Nandwani

Abstract

5.0  

Sunita Nandwani

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उलझन

उलझन

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उलझन उलझी,

मेरे मन से

उलझी भी ऐसी

कि सुलझी ना, 

मेरे लाख यत्न से।

उलझती गई 

और उलझाती गई

ख्यालों के तानों बानों ने।


किया प्रयत्न जूझनें का

पर उलझन तो लगी

और उलझाने में।

उलझाया मैंने 

अपने मन को

अनेक तृष्णाओं में

और उलझी 

वो जो उलझन

उलझी थी मेरे मन से।


पुकारा बहुत

कि निकाले मुझे कोई

इस उलझन की फांस से।

तब समझ आया 

कि मुझे स्वयं ही 

सुलझाना होगा,

इस उलझी,

उलझन 

के जाल को।


जब मन बनाया

दृढ़

बहुत दृढ़।

तो हुइ तार तार

और सुलझी 

एक क्षण में,

वो जो उलझन

बहुत देर से 

उलझी थी 

मेरे मन से।


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