एक शहीद
एक शहीद
आज फिर ये धरा लाल हुई
आज फिर खून किसी का बहा कहीं
आज फिर एक गोली चली
आज फिर सरहद पे
किसी की जान गयी...
बूढ़े बाप को
ये खबर भिजवा दी गयी
सुन के जान तो रही उसमे
पर आत्मा मर गयी...
माँ सुन के वो खबर
वहीं बेजान हो गयी
जो बहन हाथ में लेकर पूजा की थाली
कर रही थी अपने भाई के आने का इंतज़ार,
उसके इंतज़ार की घड़ियाँँ
हमेशा के लिए वहीं थम गयी...
फिर उस बेटे के मृत शरीर को
तिरंगे में लपेट के लाया गया
बिगुल की ध्वनि और
गोलियों की सलामी के साथ
उसे सम्मान से जलाया गया...
उसके परिवार का कर सम्मान
उनके शहीद बेटे को पदक दिया गया
और बस ये सम्मान समारोह
हमेशा के लिए खत्म हुआ...
पदक देने वाला जा के
अपने महल में
ठंडी हवा में सो गया,
सुबह उठा तो
सब भूल गया...
फिर किसी ने याद दिलाया तो
उस शहीद के नाम की मूर्ति बन गयी,
आज उस मूर्ति पे बैठे होते हैं
चील और कौव्वे कई...
हर एक की ज़िंदगी
जैसे चलती थी
वैसे चलती रही,
भूल गए सब कि
शहीद हुआ था कोई कहीं...
मगर पूछो जा के
उस परिवार से,
क्या उनमे से है
इस मंज़र को भूला कोई ?
क्या मिला उन्हें अपने बेटे को
सरहद पे भेज के ?
आज उनकी है कोई
सुध लेता नही !
जिस देश को दिया
उन्होंने अपना बेटा
उन्हें ही कोई पूछता नही !
फिर भी फक्र से फूला है
उस बाप का सीना,
ये सोचकर कि
कुछ तो क़र्ज़ इस देश का
है मैंने चुका दिया...!
