एक रूह की जुबानी
एक रूह की जुबानी
नसीब में शायद नहीं थी
हमारी कोई कहानी
बूंद बूंद करके बरस गये हमारे सपने
आँखों समान बादल से
पलकों के रंग उतार कर सजाए वो सपने हमने
इंद्रधनुष की भली भाँति
जीवन मे खुशियां जिससे मिलती थी
वो अब सिर्फ चूर चूर हो कर
दुःख दे रहे
हालात को दोषी मानु या खुद को?
इस संसार के लोगों को या पूरे ब्रह्माण्ड को
सिसक सिसक के रो रहे है
जिनकी वजह से आज हम इस पल
उन्हें हंसता हुआ मुखड़ा कैसे दिखाऊँ?
ये शाम ढल गयी
सबने उस बात को भुला दी
मैं कैसे भूलूँ उस रोशनी को
जो अंधकार के समय उजाला कर गयी
एक बार ही सही लेकिन वो रोशनी तो आयी
मगर रब की मर्ज़ी नहीं थी इसलिए
छीन गयी वो चीज जो थी कभी हमारी।