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Suman Sachdeva

Abstract

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Suman Sachdeva

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एक पुकार

एक पुकार

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एक पुकार 

कल कल स्वर में

 बहा करती थी कभी

 झूमती गाती गुनगुनाती


अपनी धुन में मस्त 

अल्हड़ युवती की तरह 

मस्त बेपरवाह 

लिए जीवन में 

खुशियाँ अथाह


जो भी आता

तृप्त हो जाता

मस्ती में झूम 

अठखेलियां करता

खो जाता मस्त 

रंगीनियों में


आगे बढ़ना 

सीखा सबने मुझसे

मगर अब हो रही

रफ्तार धीमी

जोश गुम 

जैसे छीन लिया हो

जीवन रस सारा

 

बस रेंगते रहना 

नीरसता से 

मजबूरीवश 

ऐसा क्यों 

सुनलो मेरी 

मूक पुकार 


बचा सको तो 

बचा लो 

मेरे साथ बंधा 

अपना परिवार 

क्योंकि शायद मैं हूं

तुम सबके 

जीवन का आधार।


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