Harshad Molishree

Abstract

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Harshad Molishree

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एक नया जहां...

एक नया जहां...

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दीवारों पर लगी खरोंचे उसका दर्द बयां कर रही थी

इंसानियत तब एक कोने में पड़ी बदनाम हो रही थी...

बंद कमरे मै आवाज़ उसकी अब भी गूंज रही थी

चीखती हुई चीखे आज भी लोगों को अंसुनी थी


दर्द से कापंती हुई उसकी रूह अब दुनिया से आज़ाद थी

मगर आज भी उन लोगों की रूह आज़ाद हवाओ में थी

उसके आंसू का मोल सिर्फ़ ये बना 

की दो दिन तक शहर जला

दो दिन के बाद फिर एक हादसे से 

इंसानियत पर कलंक लगा


ये बोझ उठाती इंसानियत अब थक चुकी थी

मगर कुछ लोगों की नीयत अब ना सुधर थी

ज़माने ने बस्स उसके याद 

में मोम बतियाँ जलाई

जिनको जलाना था बीच चौराहे पर 

उन्हें सुधार केंद्र में पनाह दिलाई....


रुक के किसी ने एक पल तब ये ना सोचा 

जब -जब हादसा ऐसा सा हुआ

है वो भी किसी की बेटी बहन माँ 

क्या बस यही वजूद रह गया है उसका....


अब तो उस दौर से बाहर आओ 

रिश्तों से बढ़कर उन्हें कुछ और पुकारो

उनकी इज्जत करने से बढ़ा ना कोई नाता होगा 

एक बार बस्स इज्जत से उनकी आँखें तराशों


देख के आँखों में तुम्हारी उन्हें कभी शक ना हो

अंधेरी गलियों में अकेले चलने से उन्हें डर ना हो

रिश्तों में जिंदगी बीत जाए उनकी ऐसा अब घर ना हो

के खुलकर जीये अब ये जिंदगी ऐसा एक जहां हो...



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