एक मुलाकात
एक मुलाकात
यकिन न था हमें तब्दिली ज़िन्दा कर देगी,
वह एक मुलाकात,
एक मुलाकात जो जाने अंजाने में हो गयी।
एक मुलाकात,
जिसका आखिरी मुलाकात में,
तब्दिल होना निश्चय था।
शायद वह मुलाकात की,
भी इसलिय गयी
क्योंकि अब उसका कभी,
न होने का आभास था हमें।
हाँ, उस मुलाकात ने,
छाप तो छोड़ी थी,
और उस छाप का गहराई में,
छुप जाने का आभास था हमें।
लेकिन अब भी यकीन न था
कि तब्दिली ज़िन्दा, कर देगी वह एक मुलाकात।
तब्दिली भी बीज से फूटते,
पौधे की भांति फूटने लगी थी,
जब एक मुलाकात मुलाकातें बनी।
पहली मुलाकात की,
छाप मानो जैसे,
सारी दीवारें तोड़कर दिल में,
उतर जाना चाहती थी।
उन मुलाकतों ने अफसाने बुने,
अफसानों में ज़िक्र था, कुदरत की खूबसूरती का।
ज़िक्र था शाम की चाय का,
ज़िक्र था तुम्हारा और हमारा।
अचानक उन मुलाकतों ने दम तोड़ दिया
और अफसानों को बुनना छोड़ दिया।
अब उन अफसानों का ज़िक्र
दिल के करीबी कुछ यादों में होता है।
लेकिन यकीन तो अब भी न है कि
तब्दिली ने हवा के झोंके की तरह साथ छोड़ दिया।।