एक क्रांति और हो.....
एक क्रांति और हो.....
है यही पुकार कि, एक क्रांति और हो,
नेताओं की इस भीड़ में, एक गांधी और हो।
चिड़िया सोने की फिर बने, हर डाली पर शोर हो,
बनें फिर वाल्मिकी, देश में जो डाकू-चोर हो।
आज़ादी की आड़ में, क़ाबिज़ है ग़ुलामी मगर,
एकता के नाम पर, बँट रहे हैं नगर-नगर,
देश के हर स्वयँ का, है तंत्र बिखरा हुआ,
जाने कब एक पर नही, एकता पर ज़ोर हो।
गली-गली में आज, एक नेता पनप रहा,
अपना कुछ है नहीं, औरो का हड़प रहा,
आग पेटों में लगा कर, इनकी रोटी सिंक रही,
जब न सोये कोई भूखा, फिर वैसा दौर हो।
गांधी-नेहरू के सपने, रोज़ ही हैं जल रहे,
टैगोर की बात मान कर, सब अकेले चल रहे,
स्वार्थ और अर्थ का, चल रहा एक खेल है,
सबका अर्थ सिद्ध हो, पंकज फिर ऐसा एक स्वार्थ हो।
जय गणतंत्र दिवस। जय भारत। जय भारती।