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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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एक दस्तक

एक दस्तक

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अक्सर तुम्हारी याद

मेरे लिये एक दस्तक सी होती है

आते ही मैं हो जाता हूँ

खुद के मुखातिब

एक पल में

गुजर जाती है

सदियों की कहानी

और मैं ठहर जाता हूँ खुद में

सोचने लगता हूँ

ये नहीं हुआ, वो नहीं हुआ

ये होता तो कितना अच्छा होता

वो तो हमेशा मेरा बुरा ही सोचता है

कितनी दयनीय स्थिति है मेरी

कोई मुझे प्रेम नहीं करता

विश्वास का तो जैसे अपहरण हो गया

इसी उधेड़बुन में

तुम्हीं बोल उठते हो मुझमें

अब इससे सुंदर क्या हो सकता है

और मैं चारों तरफ नजरें उठा के

देखने लगता हूँ

ये कौन बोल रहा है।


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