एक और मज़दूर
एक और मज़दूर
फूल भी अब शूल से लगने लगे हैं
ये उजियारे भी हमें डसने लगे हैं,
गाँव की टूटी सड़क से चलकर उसने,
आ शहर देख डाले कई सपने जिसने,
उसी सड़क का आज उसको साथ है,
सपने टूटे से पड़े हैं और काली रात है,
बोरी-बिस्तर कमर कसने लगे हैं,
ये उजियारे भी हमें डसने लगे हैं
जेब ख़ाली, ख़ाली बर्तन,घर ख़ाली कर आ गया,
हाथ ख़ाली, साथ ख़ाली, गाँव ख़ाली कर आ गया,
आ गया था उम्मीद लेकर, वही ले कर जाएगा,
ख़ाली सब है वैसा ही, हाँ! गाँव फिर भर जाएगा,
फिर पलायन कर परिंदे बसने लगे हैं,
ये उजियारे भी हमें डसने लगे हैं
शोर नहीं है बस शांति है अब,
ज़िंदा है हम बस भ्रांति है अब,
क्या मर गया वो चलते चलते,
या दिखा गया दर्पण चलते चलते,
अब तो पर्वत भी शर्म से धसने लगे हैं,
ये उजियारे भी हमें डसने लगे हैं।
