बचपन की डायरी
बचपन की डायरी
शहर जिस तेज़ी से विकसित और समृद्ध हुए, त्योहार अपनी असली चमक उसी रफ़्तार से खोते चले गए। अब इसका दोष हम मोबाइल क्रांति को दें या हमारे ही द्वारा भ्रष्ट कर दिए गए त्योहारों को, पर प्रगति और उत्सव के बीच का ये द्वंद हर स्तर पर परस्पर जारी है।बच्चे त्योहार में नहीं मोबाइल में ज़्यादा व्यस्त हैं और वहीं दूसरी ओर हर व्यक्ति अपने और अपने परिवार की प्रगति के लिए जितनी भाग-दौड़ करता है उसके जीवन में त्योहार और छुट्टी का महत्व उतना ही कम होता जाता है। यदि कोई व्यक्ति ख़ुशी, शांति और उत्सव को चुनता है तो प्रगति की न ख़त्म होने वाली दौड़ में पीछे रह जाएगा। यह विरोधाभास ही कहीं न कहीं आधुनिक जीवन की पहचान मात्र रह गया है और कम्पनियाँ इस चक्रव्यूह को अच्छी तरह समझती हैं। कम्पनियाँ किसी त्योहार में काम पर आने वाले को अधिक पैसा इसलिए देती हैं कि कहीं वह किसी उत्सव या धूमधाम में पड़कर इस दौड़ से अधिक दूर ना निकल जाए। वह आपको इस भाग-दौड़ के प्रति उदासीन कभी नहीं होने देते भले कुछ दमड़ियाँ फ़ालतू क्यूँ न ख़र्च हो जायें और फिर इन्ही कम्पनियों ने उन्ही त्योहारों को रंग-रोगन कर आपके सामने एक बदले स्वरूप में चाँदी की थाल में सज़ा कर पेश कर आपको और भागने पर मजबूर कर दिया। बस यह चक्रव्यूह इसी तरह हमारी ख़ुशी, सुकून और तफ़री को बाज़ार भाव पर तलाशने के लिए विवश कर हमें भगाता जा रहा है और भागते-भागते ज़िंदगी के पाँव में छाले पड़ गए हैं।
कुछ वर्ष पहले तक ऐसा नहीं था, लोग एक त्योहार मना कर हटते और दूसरे की तैयारी में लग जाते। मेरे मन के दर्पण पर बचपन की उन स्मृतियों का प्रतिबिम्ब अभी धुँधला नहीं हुआ। दो चीज़ें जो हम चाह कर भी भूल नहीं पाते उनमें प्रथम स्थान बचपन का ही तो है, अच्छा हो या बुरा वह हमारे साथ हमेशा चलता रहता है और हमें अकेला पाते ही सामने आ खड़ा होता है। मुझे आज भी अपने बचपन की बातें कथाओं के रूप में यूँ याद हैं जैसे कल ही की बात हो। उन यादों में त्योहारों का बहुत महत्व था, वर्ष भर एक उत्सव का माहौल विशेष रूप से हम बच्चों में, हर त्योहार का इंतज़ार बड़ी बेसबरी से रहा करता था। मोबाइल फ़ोन और बाज़ारवाद का अभाव ही था कि हर त्योहार रोमांच, रचनात्मकता और मिलने-जुलने का ख़ज़ाना हुआ करता था। सभी बच्चे अपनी-अपनी उम्र और प्रतिभा के अनुसार मिल-जुल कर हर त्योहार मनाते।
उन्हीं सब त्योहारों में एक त्योहार था स्वतंत्रता दिवस यानी पंद्रह अगस्त। मेरा परिवार दिल्ली से है इसलिए हमारे यहाँ पतंगबाज़ी का त्योहार पंद्रह अगस्त होता है, कुछ दस-बारह साल पहले तक यह केवल एक या दो दिन का नहीं बल्कि दो-तीन महीने का त्योहार हुआ करता था। गर्मी की छुट्टियां पड़ते ही सभी बच्चों का शाम का अधिकतर समय छत पर ही बीतता था। मुझे शुरुआत से ही पतंगबाज़ी कुछ ख़ास पसंद न थी पर मेरे छोटे भाई संदीप जो मुझसे बस एक साल छोटा है और तक़रीबन हर बात में मुझसे भिन्न, उसे पतंगों से प्यार था, प्यार इस क़दर जहाँ ना उसे धूप दिखती थी और ना गर्मी बस दिखती थी तो हवा में उड़ती एक काग़ज़ की चिड़िया जिसकी डोर किसी अंजान शक्ति के हाथ ना होकर उसके अपने हाथ में थी जिसे जैसा चाहे वह उड़ा सकता था। यदि महसूस किया जाए तो एक पतंगबाज की बहुत गहरे में यही मनोवस्था होती है, पतंग की डोर हाथ में लिए वह ख़ुद को विधाता से कम नहीं समझता, उसी की मर्ज़ी उड़ान दे या जीवन डोर काट उसे ज़मींदोज़ कर दे, सब उसके अपने हाथ में है।
संदीप की नज़र प्रायः हर समय आकाश में रहती तब भी जब हम बाज़ार में होते गली में या बरामदे में खेल रहे होते मानो हर समय किसी उड़ती पतंग का अंदाज़ा लगा रहा हो कि कब ढील दी जायगी और कब उसे खींचा जाएगा। माँ हम दोनो को दोपहर भोजन के बाद पढ़ने बैठा देती, दिमाग़ का तेज़ होने के कारण संदीप तुरंत अपना काम ख़त्म कर छत की ओर दौड़ लगा देता। कई बार तो मुझे यों लगता था कि वह शायद पढ़ाई भी जल्दी इसलिए कर पाता है कि जल्दी इस मुसीबत को निपटा वह पतंग उड़ा सके। पैसों की कमी कभी उसके इस शौंक के आड़े नहीं आयी वह अक्सर पतंग लूट और यहाँ-वहाँ से इकट्ठा करे माँझे से अपना शौंक पूरा कर लेता।
यह बात पंद्रह अगस्त से एक रविवार पहले की है, संदीप को छत पर आये घण्टा भर हो गया था पर कोई भी पतंग आज उसके हाथ नहीं लगी थी, वह बहुत देर से आसमान को निहार था उसका देखना ठीक वैसा था जैसे सूखे के समय कोई किसान खेत में खड़े हो आसमान को तकता हो। मैं अभी छत पर आया ही था और संदीप को यूँ इधर-उधर आसमान टटोलते देख मैंने तंजिया अन्दाज़ में बोला “क्या हुआ आज पतंग नहीं उड़ा रहा” संदीप मेरी तरफ़ मुड़ निराशा से बोला “यार आज हवा पता नहीं किस तरफ़ की है, इतनी पतंगें उड़ रही हैं पर यहाँ कट के एक भी नहीं आयी, जो आती है ऊपर से निकल जाती है” उसकी निराशा को भाँपते हुए मैं सांत्वना भरे स्वर में बोला “कोई नहीं भाई आ जाएगी” संदीप हाँ में सर हिला फिर से पीछे की ओर देखने लगा जहाँ से पतंग के कटकर आने की सबसे अधिक संभावना थी। फिर कुछ ही देर में एक पतंग कट हवा में डोलती हमारी ओर आती दिखी, संदीप ने तुरंत उसके पकड़ने के इंतज़ाम शुरू कर दिए।
वह पतंग से नज़र हटाए बिना साथ की ऊँची छत पर लपक कर चढ़ गया। पतंग अब बिल्कुल क़रीब थी और सही मौक़ा देख संदीप ने उछलकर उसकी डोर को अपने दाहिने हाथ में ले लिया। अब संदीप धीरे-धीरे पतंग नीचे उतार रहा था और मैं फिर बोला “उतार क्यूँ रहा है?” “भाई पतंग तो देख पूरी तरह फटी हुई है, चेपी लगाकर ठीक कर फिर उड़ाता हूँ” संदीप ने उत्तर दिया। थोड़ी मेहनत के बाद पतंग कुछ ठीक हुई और संदीप ने उसे उड़ाना शुरू किया। पतंग में जगह-जगह लगी चेपी किसी पसमांदा व्यक्ति के कुर्ते में लगे पैवंद जैसी थी और थोड़ी-थोड़ी दूरी पर गाँठ लगे अलग-अलग रंग के माँझे किसी फूस के झोंपड़े पर रखी नई और पुरानी खपरैल जैसी। इन सब के बावजूद संदीप ख़ुश था उसके चेहरे पर एकाग्रता और आनंद के भाव एक साथ उभर कर आ रहे थे। वह बार-बार अपनी पतंग दूसरों से बचाने की कोशिश करता क्योंकि कमज़ोर डोर के सहारे कब तक दूसरों का मुक़ाबला करता। योग्यतम के बचे रहना का नियम पतंगबाज़ी में भी उतना ही सार्थक है जितना प्राणी जगत में।
कुछ देर बाद एक दूसरी बड़ी पतंग जो बिलकुल नई सी लग रही थी और आकार में बड़ी भी थी हमारी ओर लहराती आ रही थी। यह पतंग हमारे क़रीब आ गिरी और संदीप जल्दी से पुरानी पतंग एक बार फिर नीचे उतारने लगा और मुझे देख बोला “भाई इसकी नई डोर देख रहा है, अच्छी क्वालिटी का माँझा लगता है, ज़रूर बरेली का होगा, तू अब देखना मैं अंधेरा होने से पहले कम से कम पाँच पेच काट लूँगा” मैंने हाँ में सर हिला दिया। संदीप ने पतंग उतार किनारे पर पड़ी एक पुरानी टूटी खिड़की, जो दीवार के सहारे टिकी खड़ी की गयी थी उसके पीछे रख दूसरी पतंग उड़ाने लगा।
संदीप पतंग उड़ाने और दूसरों से पेच लड़ाने में व्यस्त हो गया। उसके बाद भी दो पतंग और हमारी छत पर आ गिरी पर मैं रह-रह कर नीचे रखी उस फटी-पुरानी पतंग को देखता रहा जो खिड़की के कोने से हम दोनो की ओर आस भरी नज़रों से देख रही थी। बादल घिरने लगे और कुछ बूँदे सूखी ज़मीन पर पड़ने लगी। पुनः संदीप पतंग उतारने लगा, बारिश कुछ तेज़ हुई तो चरखी और पतंग बचाते हुए हम जल्दी से छत से नीचे उतरने लगे। सीढ़ियों के बीच पहुँच संदीप तुरंत बोल उठा “भाई ये पतंग पकड़ मैं अभी आया” मैंने पूछा “क्या हुआ?” “यार वो खिड़की के पीछे पतंग रह गयी वो तो ले आऊँ, जब कुछ नहीं था तब वही पतंग हमारे साथ थी, तू चल मैं बस अभी आया” मैं सीढ़ियों के नीचे पहुँच एक किनारे पर रुका और पीछे मुड़ कर देखा तो संदीप उसी पुरानी पतंग को पकड़े तेज़ी से उतर रहा था, वह पतंग भीगकर और फट चुकी थी उसे देख ऐसा लग रहा था कि अपने आख़िरी समय बस एक बार मुस्कुरा कर अलविदा दोस्त कह हमसे विदा लेना चाहती हो, पर संदीप उसे यूँ थामे था जैसे किसी अज़ीज़ को दूर जाने से रोक सदा अपने ह्रदय में समा लेगा।