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Mayank Kumar 'Singh'

Abstract

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Mayank Kumar 'Singh'

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सपना अपना नहीं होता

सपना अपना नहीं होता

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कैसे जिओगी

ऐसे सपने को तुम

जो अपनों ने

ख़ाक किए हैं

तुम्हारी नजरों का मैं

एक खुशनुमा सपना हूँ 

जो मजबूरी के बादलों से

घिरा घिरा धुँधला है

जो तूफान तुम्हारे अंदर है

उसको लहरों का सहारा

कैसे मिले, वह कैसे दिखे

अजीबोगरीब कोहरा उसे

खुद में समेटे हुए हैं

आखिर बोलो भी

कैसे जिओगी

ऐसे सपने को तुम


तुमने सब पाया उस सपने से

जो पाकर तुम बादल हो गई

फिर भी यह सच है ना कि

वह सपना अपना होकर भी

गैरों सा तुमसे मिलता-जुलता

जब भी तुम बरसती हो उस पर

तन-मन से वह झूमा करता

जितना वह कठोर दिखता है

उतना ही वह सहज, सरल है

कैसे जिओगी

ऐसे सपने को तुम


लेकिन सपना, सपनों में ही

खामोशी से मदहोशी देती हैं

सपना हक़ीक़त नहीं होता

अगर सपना हक़ीक़त हो गया तो

अपना किसे कहोगी तुम..

कैसे जिओगी

ऐसे सपने को तुम


इसलिए तुम मुझे बस

अपना सपना समझो

अपना हक़ीक़त हमसफर नहीं

अगर सपना हक़ीक़त हो गया तो

सारे सगे अपने तुम्हारे,

सपने हो जाएंगे..

कैसे जिओगी

ऐसे सपने को तुम 



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