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Rakshita Haripushpa

Tragedy

3  

Rakshita Haripushpa

Tragedy

एक अनहोनी

एक अनहोनी

2 mins
143


चेहरे पर एक दाग सा हुआ करता था

माँ कहती थी, बढ़ती उम्र का है कमाल,

बहन कहती थी, हल्दी लगा ले रंग और निखर जाएगा

पाप कहते थे नज़र न लगे फूल की एक कली है तू।


दोस्तों को खूबसूरती कभी न भाती थी मेरी,

इसी गोरे रंग के कारण तो अनबन हुआ करती थी मेरी,

लड़कों को लुभावना लगता ये रंग था,

रोज़ रोज़ उनकी बातों का हिस्सा बनना मुझे ना पसंद था।


पच्चीस के दस्तक के साथ ही रिश्तों की बात चलने लगी,

रोज़-रोज़ कॉलेज से आने के बाद लोग देखने आने लगे,

ऐसा लगता था मानो, दुकान में कोई नया माल आया हो

रोज़ रोज़ ख़रीदार आये और निहार कर जाये।


इस रोज़मर्रा की जिंदगी से आ चुकी थी मैं तंग,

पढ़ने की चाहत में ये ब्याह रिश्ते कर रहे थे मन भंग,

सोचा एक रात चलती हूँ सैर पर अकेले कुछ देर,

कहाँ भनक थी मुझे,

हो जायेगा मेरा गोरे चेहरे का आज सपना चूर चूर।


निकली जैसे ही सड़क पर चलते हुए कुछ दूर,

आहट सी हुई दस्तक है किसी की पीछे ही मेरी ओर,

सोच मेरा पीछा कौन करेगा इतनी रात,

इसीलिए, मैंने ना दी तवज़्ज़ो उस आहट को कुछ खास।


चलते चलते नहीं हुआ मुझे ये आभास,

निकल आयी घर से यूँ सुनसान रास्तों के आसपास,

तभी अचानक सुनाई दी एक आवाज़,

पीछे मुड़ते ही मिली एक भयानक बौछार।


उस बौछार को सहन करना तो दूर,

कराहने चिल्लाने की शक्ति भी न बची थी मुझ में,

आग की लौह भभक उठी थी पूरे चेहरे पर,

तड़पते चिल्लाते हुए गिरी उस सुनसान राह पर

मैं उस रात।


हुई ऐसी घटना जो आज भी सोचकर हो जाता है

मन उदास

की आखिर किस बात की थी वो मुझ पर भड़ास,

आखिर ऐसी भी क्या हुई थी मुझसे गुस्ताखी,

जो जीवन भर के लिए लगता है,

हो गया ये गोरा रंग अभिशाप!!!



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