एक अलग सी दीवाली
एक अलग सी दीवाली
सपनों की उम्र हर उम्र से बड़ी होती है ....कामिनी वृद्धावस्था में कदम रख चुकी थी ..पर अब तक उसके युवा स्वप्न जीवित थे..अपनी पोती को वो हर गुण से सजा देना चाहती थी। जूडो-कराटे .....वाद-विवाद ....बालश्रम का विरोध, ज्ञान विज्ञान की बातें, सब एक- दूसरे से कहतीं-सुनतीं थीं दोनों...
पोती जिज्ञासा ...इंजीनियरिंग करने दिल्ली चली गयी थी । आज करीब एक महीने बाद दीवाली के अवसर पर वो घर लौटी तो खुशी से पगलाई थी ....एक घंटे में ही आस-पड़ोस की सारी खबरें उस तक पहुँच चुकी थीं ....पर वो चिन्तित थी! दादी नहीं दिख रही थीं ...माँ-बाबू जी सब्जी लेने गये थे ... उनसे पूछने का औचित्य नहीं था..उसे उम्मीद थी कि दादी घर में उसकी प्रतीक्षा कर रही होंगीं पर वो आधे घंटे से खोजबीन में लगी रही ....दादी तो दादी उनका कमरा भी गायब...कपड़े, बकसिया....और तो और उनकी खुशबू...वो भी घर में नहीं थी ...एक महीने में ऐसा क्या हुआ कि दादी.....पर मोबाइल पर बात तो हर हफ्ते होती थी....आज दादी का फोन बंद...जल्दी माँ घर आये ....वो मन ही मन अपने से बात करती रही और बेताबी से प्रतीक्षा करती रही ...पर तब तक कामवाली आ गयी....
"ये क्या...तुम्हारी माँ कहाँ है शीनू ?" उसने कामवाली चाची की जगह शीनू (उनकी बेटी) को देखकर पूछा....
"अम्मा तो बीसेक दिनों से कहीं गयी हैं दीदी..." कहकर वो काम करने बैठ गयी ..
जिज्ञासा को उसके चेहरे के भाव थोड़े अजीब लगे ....बिना विलम्ब वो उसको माँ वाले कमरे में ले गई....
”सच बता शीनू, यहाँ क्या हुआ है ? दादी कहाँ है मेरी ? मुझे पता है माँ की उनसे झांय झांय होती थी, मैं ही बीच-बचाव करती थी हमेशा....पर..किसी ने मुझे फोन पर तो कुछ नहीं बताया ...कहाँ है वो बोल ना..."
शीनू भय से पीली पड़ गई ...
"जिज्ञासा दीदी...वो घर छोड़कर कहीं चली गई हैं..."
उसने कहा
"क्या ?" जिज्ञासा अवाक रह गयी ....
"पर कहाँ जा सकती हैं वो ? 80 वर्ष की हैं ...हे भगवान" कहकर जिज्ञासा वहीं बैठ गयी ....
तब तक माँ-बाबू जी आ गये ....
"अरे वाह बिटिया ! दिल्ली रिटर्न...कैसी है रे तू..." कह कर माँ ने गले से लगा लिया ।
"मैं ठीक हूँ माँ ..." जिज्ञासा ने मायूस होकर कहा ।
"दादी कहाँ है माँ..." छूटते ही जिज्ञासा ने पूछा ...
"अरे वो अपने मायके गयी है बेटा ....उनके भाई की बहू लिवा ले गयी ..." माँ ने धीरे से बताया
"आपने मुझे नहीं बताया माँ .....?"
"अरे तू दिल्ली में चिंता करती तभी ...चल कुछ खा पी ले..." कहकर माँ उससे नज़रें चुराकर डाइनिंग टेबल सजाने लगीं ...पापा हमेशा की तरह अखबार पर नजरें गड़ाये रहे ..
जिज्ञासा से आँखें तो वो कभी मिलाते ही नहीं थे क्योंकि वो हमेशा ही उनसे क्रास क्वैश्चन कर बैठती थी ..
"बाबू जी.. " वो धीरे से उनके पास जाकर बोली...
"हूँ ..." उन्होंने धीरे से कहा ...
"दादी कहाँ हैं ?" उसने सपाट स्वर में पूछा ...
"दिल्ली में सब कैसा रहा ?" उन्होंने प्रश्न उछाला...
"मैं पूछ रही थी दादी..." वो कहते कहते रूक गयी...
सामने पड़ोस के कई लोग घर के भीतर घुस रहे थे....
दीवाली के आयोजन की तैयारी करनी होगी, सोचकर वो चुपचाप हट गई....
बिन कुछ जाने ...सब कुछ समझ गयी वो ...पर दादी का फोन ? लगातार बंद ...? दादी डरपोक नहीं हैं मेरी, उसने मन ही मन सोचा….
उसके कदम काली माँ के मंदिर की तरफ चल पड़े....दादी जब भी परेशान होती थीं, वहीं बैठ जाती थीं। लखनऊ का प्रसिद्ध मंदिर तो था ही, दादी के मन के भी बहुत करीब था वो।
दादी वहाॅं बैठ ढेरों देवी गीत गाती रहतीं...आँखें आँसुओं से भीगी रहतीं...
अक्सर वो पूछ्ती थी कि " देवी गीत का आँसुओं से क्या रिश्ता है दादी....?"
“कुछ नहीं रे ...बस लगता है तेरे बाबा सुन रहे ....मुझे उनकी याद आ जाती है तभी...”
“ओह ....दादी” कहकर वो उनको गले से लगा लेती थी...
सब कुछ सोचते-सोचते वो मंन्दिर के सामने जा पहुंची...
दादी की खुशबू! वो चकित ..खुश भी.... तो यहीं कहीं है वो ...
उसने माइक उठाकर उनका भजन गाना शुरू किया...
“सुना है अयोध्या भी खासी सजी है “.....वो गाती रही..आँखें भीगती रहीं ...शायद आवाज भी ...भजन खत्म कर वो माँ के चरणों में सर रख कर रो पड़ी ....
"कहाँ है मेरी दादी माँ...? क्या छुपा रहे हैं सब मुझसे....?
वो रोती रही ...तब तक उसके माथे पर किसी ने हाथ रखा..
"उठो बिटिया..."
वो चौंकी...मुँह उठाकर देखा ...कामवाली चाची थीं ..
"चाची....दादी कहाँ गयीं मेरी..." वो उनसे चिपक कर फूट-फूटकर रो पड़ी...
“आ चल मेरे साथ .." कहकर वो उसको साथ लेकर चल पड़ीं और एक घर के सामने रूक गयीं...
“श्रीमती कामिनी”.....दादी के नाम की नेम प्लेट पढ़कर वो ठिठक गयी...चाची अंदर चलती गयीं ....
वो थरथरा पड़ी...इस उम्र में ...अकेले ...तभी भीतर से व्हील चेयर पर दादी दिखीं..वो चीखी...."दादी...."
वो बाहर आ चुकी थीं…
"एक महीने में क्या हो गया दादी ?"
"कुछ नहीं बेटा...तुम्हारे जाते ही वैदेही ने मुझसे कमरा खाली करने को कहा....कि किरायेदार रखना है ..खर्च बढ़ गया है, खाना भी बेसमय देने लगी....हद तो तब हुई जब उसने मुझसे पेंशन के पैसे मांगे नहीं, बल्कि छीन लिये.....और मेरा बेटा ! उसने भी मुझसे ए.टी.एम. मांगा कि बिल चुकाने है । मैं दूध पीती थी.. वो भी बंद हो गया....मैं बेवकूफ नहीं हूँ बेटी.. एक हफ्ते बाद मैंने याददाश्त जाने का नाटक किया तो तू यकीन नहीं करेगी कि मेरे बेटे ने वृद्धाश्रम फोन लगा दिया कि माँ को भेजना है ....घर में कोई सेवा करने वाला नहीं है" विद्रूप सा मुँह बना दादी चीख-चीख कर रो पड़ीं । जिज्ञासा ने उनको कसकर चिपका लिया ।
" चलो जिज्जी ..चाय पियो" कहकर चाची उनको कमरे की तरफ ले जाने लगीं...जिज्ञासा कुछ निश्चय करके वहाँ से लौटी ।
"अचानक दिल्ली जाना पड़ रहा है" कह कर सारा सामान उठाकर घर से निकल पड़ी...
"पर कल दीवाली है बेटा" माँ ने रोकने का प्रयास किया...
"हाँ माँ ..पर बहुत ज़्यादा जरूरी है जाना" कहकर वो आटो में बैठ गयी और दादी के पास पहुँच गयी ...
दादी ने उसको देखा तो उनकी आँखें छ्लछ्ला पड़ीं
"बेटा त्योहार तो अपने घर में कर लेती ..."
“दादी जहाँ तुम वहाँ मैं....बस अब और कुछ न कहो” कहकर वो घर को सजाने लगी ...
शाम को मंदिर शंख, ढोलक और घंटे की करतल ध्वनि से गूॅंज उठा । गणेश-लक्ष्मी की पूजा का भव्य उत्सव उसने अपनी दादी जी से शुरू करवाया । देवी सरीखी दादी ने व्हील-चेयर पर बैठे-बैठे दीप जलाये ...स्वाभिमान और ओज से उनका चेहरा दैदीप्यमान हो उठा....
मंदिर में ..”.गणपति विघ्न विनाशन हारे” ...भजन गूॅंज उठा ...जिज्ञासा दादी की गोद में सर रख कर भजन गुनगुनाती रही ...।
एक नये स्वाभिमान से उसका मन दमक उठा... वो मन ही मन दादी की सेवा कर, ट्यूशन पढ़ाकर, पढ़ाई आगे जारी रखने का निर्णय ले चुकी थी ।