अनियंत्रित स्वप्न
अनियंत्रित स्वप्न
झाँक रहे हैं नयनों के
कोने-कोने से
स्वप्न।
छिपे कांख में थे यथार्थ की,
कसमसाए वे कब?
पुलकित-पवन उम्मीदों की भी,
वे पाए थे कब??
दौड़ रहे मन के कानन
में, मृगछौने-से
स्वप्न।
गलबहियाँ कर के मिलतीं,
कुछ स्मृतियाँ चंचल।
रंगत बदले फिर कपोल,
मल दें बतियाॅं सन्दल।।
खूब लुभाते हैं माखन-
मिश्री दोने-से
स्वप्न।
रूप सजाता मन, अतीत के
विरही वादों का।
पुनर्जन्म ज्यों होता भूली-
बिसरी यादों का।।
कर लेते मन को वश में,
जादू-टोने-से
स्वप्न।।
