दुख और सुख
दुख और सुख
सोच रही हूं आज क्या लिखा जाए, खुशी की बात कही जाए या कोई दुख लिखा जाए।
दुख सुख तो जीवन के साथी है, इनसे कैसे भागा जाए; इसलिए थोड़ा दुख और थोड़ा सुख लिखा जाए।
कभी कभी ये दुनिया बहुत बुरी लगती है, क्यूंकि चैन से ये हमें जीने नहीं देती हैं, कभी हमें निराश कर देती है।
कभी ये दुनिया अच्छी भी लगती है, क्यूंकि कभी कभी ये आपकी खुशी का कारण भी बन जाती है।
कभी अपने भी पराए लगने लगते हैं, कभी पराए भी अपने लगने लगते हैं, ये तो कुछ भी नहीं, कभी कभी तो हम खुद को भी पराए लगने लगते हैं !
स्वार्थ की दुनिया में हम रहते हैं, ये सभी जानते हैं; फिर भी हम सब साथ एक दूसरे का देते हैं।
जीवन में हमेशा खुशियां ही नहीं रह सकती, इसलिए कभी कभी खुद ही दुखी हो जाया करते हैं।
बस दुख ज्यादा तब होता है, जब हमारे अपने हमें नहीं समझ पाते हैं, और हमसे से ज्यादा वो समाज की चिंता जताते हैं।
भूल जाते हैं वो, समाज तो सिर्फ सुनाने आता है, जख्म तो कोई कोई ही लोग होते हैं, जो आकर भरा करते हैं।
समाज के वजह से कितने ही लोग दुखी ज़िन्दगी भी जीते हैं, खुद की खुशियों को समाज की वजह से एक तरफ उठाकर रख देते हैं !
खुशियां पर सबका हक होता है, ये कुछ लोग नहीं समझते हैं, दूसरो को तो जैसे जीने का हक ही नहीं है ऐसे नियम बना देते हैं।
खुशियों पर हक है सबका, ना छीना जाए किसी से, क्यूंकि भगवान भी ये अत्याचार ऊपर से देखा करते हैं !
रखते हैं भगवान हिसाब सभी का, किसी से कम नहीं वसूलते हैं, सजा जब देता है भगवान जमानत भी नहीं होने देते हैं !