'' दर्द से तड़पती हथिनी "
'' दर्द से तड़पती हथिनी "
तड़प रही थी दर्द से हथनी
बेचारी अपनी विवशता पे,
मानवता भी कराह रही थी
अपनी ही इस लाचारी पे ।
कैसे बचाती वो अपने
अंदर के तो उस जीव को,
दम तोड़ दिया उसने
वहां दर्द से तड़प तड़प के तो ।
गँवा दी अपनी और अपने बच्चे की जान
इन्सानियत हो गयी थी उस दिन तार तार,
गर्भवती थी वो बेचारी हथनी
भूखी थी वो बेचारी हथनी ।
फल में मिला जहर और पटाखा
किसी ने उसे दिया तो खिला,
खा के हो गयी वो हो गई बेसुध दम तोड़ दिया
वही दर्द से तड़प तड़प के आया ना था कोई उसे तो बचाने
।
अब तो संभलो ऐ मानव तुम,
खुद क्यों कहते हो तुम इनसान
तुम तो थे सच में एक शैतान
कहां गयी तुम्हारी इनसानियत,
जानवरों पर तुम कुछ रहम करो
अपने कर्मों पर कुछ तो शर्म करो ।
वो भी एक अजन्मे बच्चे की माँ थी
छीन लिया तुमने उसका जीवन,
उसे मार के तुम्हें क्या मिल गया ।
अब तो संभलो ऐ मानव तुम,
जीवों पर थोड़ी तो दया करो
अपने इनसान होने का कुछ तो
तुम फर्ज अदा तो करो तुम ।
देख रही ये दुनिया सारी
तुम ना बनो ऐसे तो अब अत्याचारी ।