दिन भर बोई धूप (नवगीत)
दिन भर बोई धूप (नवगीत)
दिन भर बोई धूप को
चलो समेटें।
जीवन एक निबंध सा
लिखते जाओ।
रिश्तों से अनुबंध कर
बिकते जाओ।
मुस्काते मुखड़ा लिए
दर्द पियो तुम।
बड़बोलों की भीड़ में
मौन जियो तुम।
चलो आज फिर पेट पर
भूख लपेटें।
शहर लुटेरे हो गए
कौन बचाए ?
अधिकारों का शोर अब
कौन मचाए ?
बने सभी अनजान हैं
अपने वाले ।
भरी तिजोरी लाख की
पर हैं ताले।
खूब उमगती पीर मन
उसे चपेटें।
