दिल मांगे और ?
दिल मांगे और ?


बादलों की आहट को सुनकर,सावन में नाच उठता है मोर,
सुंदर पंखों को भूल, पैर देखकर, कैसे हो जाता कमजोर।
कस्तूरी मृग में, यायावर सा सुगंध को, ढूंढ रहा चहुं ओर,
मृगतृष्णा का यह खेल है सारा, क्यूं दिल मांगे कुछ और ?
मरूस्थल की तपती भटकन में कलकल मीठे झरने का शोर ,
खारे सागर में मुसाफिर, दूर से दिख जाये, जीवन का छोर,
कुम्हलाता अकुलाता जून है व्याकुल, यूं बरसे घटा घनघोर,
फिर भी मरीचिका के दामन को पकड़े, क्यूं दिल मांगे और ?
दिन भर के भूखे को, भोजन की थाली में, ज्यूं रोटी का कौर,
कङी धूप में व्यथित पथिक को , मिल गयी बरगद की ठौर।
लाख कोहिनूर झोली में मानव के, छूना चांद गगन की ओर,
मानों-अरमानों से भरी गठरीया अब क्यूं दिल मांगे फिर और ?
प्रेम-प्यार का सुधा कलश है, फिर क्यूं, भीगी पलकें भीगे कोर,
अपनी काया की पहचान बना,नाम बना, वक्त भी होगा तेरी ओर।
आगत विगत सब खाली हाथ है, नश्वर जीवन पर किसका जोर,
बंद मुठ्ठी क्या लेकर है जाना, रुक जा ! दिल मांगे कुछ और !