दिल की दास्तां
दिल की दास्तां
उस दिन न जाने ऐसा क्या हुआ
नब्ज़ बढ़ गयी दिल धड़कने लगा
एक तूफ़ां ही था वो सीने में
जो उससे मिलते ही थमने लगा
हसरतें बढ़ती गयी
दिल ये बहक गया
न जाने कब एक चाहत
इश्क़ में बदल गया
मिलना उसका सुकूँ देने लगा
बिछुड़ना उसका एक ग़म
हालात कुछ यूँ थे दोस्तों
खुदगर्ज़ हो गए थे हम
ज़िन्दगी के वो पल भी
हसीन हुआ करते थे
वो ऑर्डर किया करते थे
और हम बिल भरा करते थे
वो रूठे हैं इस कदर मनायें कैसे
जज़्बात अपने दिल के दिखाएँ कैसे
नर्म एहसासों की सिरहन कह रही है पास आ जाओ
सिमट जाओ मुझमें और दिल में समा जाओ
देखो लौट आओ
न रूठो हमसे
कर रहे तुम्हारा इंतज़ार कब से
इतनी भी क्या तकरार है हम से
भावनाओं में आवाज़ नहीं होती
उन्हें महसूस करना होता है
कलम ही बयाँ कर सकती है दर्द
जो सीने में छिपा होता है...

