धूप धूल धूसरित
धूप धूल धूसरित
जीव जंतु जागते जहाँ उजास मिल रहा।भोर भागते भ्रमर जिधर प्रसून खिल रहा॥
धूप धूल धूसरित है' स्वागतार्थ ज्येष्ठ के।तीव्र ताप ताड़कर महान व्योम हिल रहा॥
रात रागिनी रमे कि खो स्वयं के' होश को।चाँद चाँदनी चले मचल मचल ये' दिल रहा॥
केश को कपोल पर बिखेर दामिनी चली।देख दृश्य दूर से निहारता सलिल रहा॥
भेद भूमि भाँपकर भले ही' आज मौन है।पर प्रकृति प्रचंडता से' दृश्य हो जटिल रहा॥
रश्मियां रहें रुधिर प्रचंड सूर्य ताप से।क्रोध कर्म कांड से कि तप्त जग अखिल रहा॥