धुंधला सा वो
धुंधला सा वो
मैंने दीवालों की दरारो में झाँका
कही कुछ टुकड़ा पड़ा मिल जाए
मैंने टूटे काँच के टुकड़ो में ढूँढा
की कोई बिखरी रेखा मिल जाए
चमकते फर्श में घंटो अपने
माथे को निहारा की कुछ दिख जाए
पर सब समतल और समान दिखता है
पानी की लहर सा मचलता नहीं कुछ
खामोश सी ज़ुबान उसकी ..कुछ कहता है
सुनाई नहीं देता, मगर किसी को
बस बुलबुले सा बुदबुदाता है
और धीरे से कान में
कुछ कहकर, फट जाता है।
कोई बड़ी से ताक़त जो हज़ार
पर्दो के पीछे छुपी है मगर
कभी धुंधली से दिखती भी है और
नहीं भी।
अजीब सा कर दिया उसने खेल
तन को कहीं से ढका नहीं और
मन खुला रखा नहीं।
