धुआँ ही धुआँ
धुआँ ही धुआँ
आज चारों ओर धुआँ ही धुआँ है,
या यूं कहें मनुष्य का प्रकृति के साथ खिलवाड़,
ये जो किरणें हैं सूरज की,
वो भी कहीं धुंध बन कर रह गई है।
फेक्ट्री, उद्योग, कारखानों का धुआँ,
गाड़ियों, आग, मालगोदामों का धुआँ,
जहां देखो वहाँ धुआँ ही धुआँ,
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है?
ये धुआँ सिर्फ इन्हीं का है?
या इनका कोई और कारण है,
ये धुआँ है आधुनिकता के जलते पैमानों का,
बढ़ती हुई खराब तकनीक के परिणामों का,
आज मनुष्य आसानी ढूँढता है,
हर काम में तकनीक ढूँढता है,
ये धुआँ उसी आसानी और तकनीक का है,
या फिर हमारी अपनी कमजोरियों का है,
आधुनिकता के युग में जलती हुई प्रकृति का धुआँ,
पेड़ों, फसलों की लाशों का धुआँ,
नदियों में बहते हुए रक्त का धुआँ,
तकनीक के मैले वक़्त का धुआँ,
धुआँ महज़ जो उड़ता है वो नहीं है,
इसमें कई प्रकृति के अंतिम संस्कार का धुआँ है,
अब जो ये धुआँ कम न हुआ,
प्रकृति इसका बदला अवश्य लेगी,
चाहे वो किसी रूप में भी हो लेकिन,
अब सिर्फ कुछ नहीं सब धुआँ ही धुआँ है।
