धुआँ-धुआँ
धुआँ-धुआँ
काव्य : कुछ तेरा कुछ मेरा
शीर्षक : धुंआँ - धुंआँ
प्रचंड वायु की चाँपों से
पंखुड़ी पुष्पों की बिखर जाते
बाती दीपक की जलाने में
भयंकर अँधेरे जल जाते।
बहकी-बहकी इन हवाओं में
कितने दिन तुम दीपक जलाओगे।
वेदनाओं से दहते तन -मन को
अपनों ने तुम्हें अभिश्राप दिया
सारंगों सा जीवन जीने को
प्राणों ने हरदम जहर पिया।
शब्दों के हलाहल को पीते – पीते
दिवंगत पल तुम कब हो जाओगे।
खालीपन और एकाकीपन जीवन
कुछ – कुछ तेरा और मेरा है
दुनियाँ को अपना कहने वालों
पल भर का बस इस जग में बसेरा है।
छाई हुई धुंध की दीवारें कह रही
तुम इक दिन खुद धुंआँ-धुंआँ हो जाओगे।