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मिली साहा

Abstract

4.9  

मिली साहा

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धर्मांधता

धर्मांधता

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360


ईश्वर की सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ रचना है, मानव,

क्यों ऐसे धर्मांध होकर बनता जा रहा दानव,


धर्मों से ऊपर भी तो एक धर्म है इंसानियत,

धर्म के नाम पे खून बहाना कैसी ये अज़्मत,


सदैव विनाश की ओर ले जाती है धर्मांधता,

कितने बलि चढ़ते कितनों का खून है बहता,


धर्म के लिए हैवानियत की, हद पार करना,

औरों को कुचलकर अपना मजहब बचाना,


आखिर कैसी है ये इंसानियत की परिभाषा,

बेगुनाहों के खून से रंगी, यह धर्म की भाषा,


मानसिक गुलामी है धर्मांधता, ऐसा ज़हर है,

जहाँ भी बहती इसकी हवा बरसता कहर है,


कहने के लिए तो इन दंगों में इंसान मरता है,

वास्तव में कितनों का संसार उजड़ जाता है,


कोई है सुहाग किसी का, कोई इसमें पिता है,

कोई भाई इसमें कोई माँ का लाडला बेटा है,


मेरा समुदाय, मेरा धर्म एकता का नारा देते,

ये कैसी एकता, इंसान इंसान को नोच खाते,


नफ़रत का ज़हर फैला रहे, धर्म के ठेकेदार,

निरंकुशता की पराकाष्ठा का खोल रहे द्वार,


मेरा धर्म मेरा ईश्वर ऊँचा विवादों में हैं लीन,

एक दूजे को नीचा दिखाते होकर हृदयहीन,


भुलाकर अपने जीवन की वास्तविकता को,

स्वयं के अंदर हावी कर रही है धर्मांधता को।


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