धरा का भाग्य जगाता हूँ
धरा का भाग्य जगाता हूँ
हाथ काले, उंगलियाँ खुरदरी बनाता हूँ।
उनपर फफोलों की मोती उगाता हूँ।
सबों का भाग्य जगाने वाला श्रम - देवता हूँ।
बाजुओं की गठन, मांस-मज़्ज़ा पिघलाता हूँ,
मेरी पसीने की बूँद जिस जगह गिरती है,
वहॉं हिमालय - सा ऊँचा महल उठाता हूँ।
वहाँ पर आसमानों को जो कंगूरे छू रहे हैं,
उसकी कंक्रीट में श्रम- बिंदु मिलाता हूँ।
चीर कर हल से, अन्न देवता को जगाता हूँ,
फिर भी, अन्न कम, मैं किसान कहलाता हूँ।
जो भी मिले लेकर, उसे संतुष्ट हो जाता हूँ,
कर्मयोगी बनकर धरा का भाग्य जगाता हूँ।