धक्के खा रहा बेरोज़गार
धक्के खा रहा बेरोज़गार


पढ़ लिख लगाया डिग्रियों का अंबार,
फिर भी धक्के खा रहा बेरोजगार।
सोचा था पढ़ लिख कर डॉक्टर,वकील बन जायेंगे,
अध्यापक बनके शिक्षा की अलख जगाएँगे,
या इंजीनियर बन इमारतें नई बनाएंगे।।
हुआ सामना व्यवस्था से तो,
खुद को पाया बहुत लाचार,
लाख जतन करने पर भी,
नही मिला कोई रोज़गार।
धक्के खा रहा बेरोज़गार।।
अब धीरे धीरे उम्र ढल रही,
नौकरी की आस घट रही।
बेरोजगारों की फ़ौज बढ़ रही,
सरकारों के आश्वासनों की मार।
धक्के खा रहा बेरोज़गार।।
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नौकरी है सामाजिक पैमाना,
बिन इसके समझें सब बेकार,
मात पिता पर तो बोझ बन गए,
जीवन हुआ जैसे अंधकार।
फार्म भरने में लाखों फूंक दिए,
हुआ बेगारी में जीना दुश्वार।
धक्के खा रहा बेरोज़गार।।
अव्यवस्था का माहौल बन रहा,
युवाओं में आक्रोश पल रहा,
समाज के बढ़ते तानों से है,
आत्म ग्लानि में ..जल रहा।
ऊपर से महंगाई बेशुमार,
कैसे सहें ये अत्याचार ?
कोई तो लगा दो बेड़ा पार।
धक्के खा रहा बेरोज़गार।
धक्के खा रहा बेरोज़गार।