दहेज प्रथा :- एक हँसी फिर जल
दहेज प्रथा :- एक हँसी फिर जल
एक हँसी फिर जली
वह जो थी
बड़े ही नाजों से पली
मिश्री की वह डली ।।
सुरीले स्वर से उसके
खनकती रही वह घर
और उसकी गली
सानिध्य उसका कमी न खली ।।
लुप्त हो गई वह कली
जो थी फली
अगणित अरमानों के संग
भरी थी जननी के ख्वाबों के रंग ।।
निष्ठुर माली से ही
गई वह पूरी तरह छली
दे दी उस बेरहम ने
अपनी अतृप्त अभिलाषा की वेदी पर
उस मासूम की बलि ।।
हे परिष्कृत पुरोधा
होश में आओ
सृष्टि की शोभा वह
उसे तो न जलाओ, उसे तो न जलाओ ।।