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देवदास

देवदास

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सुनो बे देवदास !

माना कि तुम

मोहब्बत के मुहावरे बन चुके हो 

लेकिन तुम्हारा किरदार 

मुझे बिल्कुल पसंद नहीं

बिल्कुल भी नहीं

तुम्हें पता है

पारो का दर्द ?

उसकी बेबसी ?

उसका बंधन ?

उसका तिल - तिल कर मरना ?

नहीं, तुम्हें नहीं पता !

समाज में औरत होना क्या होता है...

तुम्हें नहीं पता

जब एक ऊँगली

उठती है 

किसी स्त्री के चरित्र पर

तब बिना सोचे - समझे आदतन

हज़ारों चरित्रहीन

अपनी गंदी उँगलियों से 

हवसी निगाहों से

उस स्त्री को नंगा करने में जुट जाते हैं

यह जानते हुए भी कि

वह खुद कितना खोखला

कितना नंगा है

कहते हैं

मोहब्बत मुक्ति है

लेकिन तुमने कभी पारो को मुक्त किया ?

आज भी नहीं

आज तक नहीं

पारो कैद है

तुम्हारे नाम के साथ

जहाँ तुम्हारे नाम को

तुम्हारे किरदार को

गाया जाता है 

खूब मिलती है तालियाँ 

वहीँ पारो के हिस्से आती है

शिकायतें, उलाहने

और एक ऐसा दर्द

एक ऐसी पीड़ा 

जो पता नहीं कब तक मिलती रहेगी...।


जो कुछ तुमने

मोहब्बत के नाम पर किया

यकीं मानों

वह तुम्हीं कर सकते थे

क्योंकि तुम्हारे पास थी एक विरासत

जिसका चाहो न चाहो 

तुम हिस्सा थे

लेकिन उससे पूछो 

जिनके पास ऐसी कोई विरासत नहीं

वह तुम्हारी तरह देवदास नहीं बन सकता

नहीं ओढ़ सकता 

वह लिबास जो तुम छोड़ गए हो

वह मुहावरा 

जिसमें तुम अब भी ज़िंदा हो

क्योंकि -

उसकी ज़िंदगी से जुड़ी है कई जिंदगियाँ

तुम्हारी तरह वह मर भी नहीं सकता

क्योंकि वह जानता है

उसके मरने से

कितने ख़्वाब मर जाएँगे

कितनी आँखे पथरा जाएंगी

इसलिए वह मरने से बहुत डरता है

कभी गर ख़्वाब में भी वह खुद को मरता हुआ पाता है,

तो नींद को ठोकर मार उठता है 

और रसीद करता है 

ज़ोरदार दो - चार तमाचे खुद से खुद के गाल पर 

ताकि उसे तसल्ली हो जाए कि वह ज़िंदा है 

और उसके साथ ज़िंदा हैं 

कुछ ख्वाब 

उसी तरह जैसे 

एक किसान को 

अपनी हरी - भरी फसल देख कर होती है...।।


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