देह का गमन आत्मा का परिगमन
देह का गमन आत्मा का परिगमन
रुदन से विलाप तक जीवन का सफर
एक उम्र तक बढ़कर क्षय का होना
कितनी भी परिभाषाएं गढ़ जाए मन की
परिपक्वता शनै शनै ही आती है।
पुनरूत्पादन जितना कायिकी का समझना है
उससे कहीं अधिक मन में हर पल उपजते भावों का
नख से शिख तक परिवर्तन प्रत्यक्ष होता है
पर अप्रत्यक्ष हो रहा मन का बदलना।
हमारे विचारों का गति का सूचक होता है
कितने भी सच और झूठ बदलते रहें चेहरे पर
हृदय की परिपाटी असत्य की न हो
आत्मा का पारगमन, देह के क्षरण के साथ ही होना है।
जी
वन चक्र से गुजरकर पुनः आत्मा के मोहपाश में बंधना
जन्म मरण के साथ गुजरते रहना
बस यही तो अवश्यंभावी है
कि देह का नहीं मन का विकार छूटे।
आत्मा का चिरस्थाई होना
जीव के जीवन का सार है।।
